हद हो गई, तो हिम्मत अपने आप ही आ गई…

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ये कहने की, कि मार्केटिंग स्ट्रेटजी चाहे जो भी हो, ऐसे तो गली मुहल्ले के बिना मतलब वाले मैच में छोटे छोटे, बिना बोध वाले बालक करते हैं। खुद जीत जाते हैं, लेकिन जश्न अपनी जीत से ज्यादा दूसरे की हार का मनाते हैं। हारने वाली टीम के सामने गंजी-कच्छा उतार कर नंगा नाच करते हैं, चिढाते हैं। और जैसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं नीचा दिखाने में, उसकी झलक मुझे इस विज्ञापन में दिख रही है।

ऐसी के भाषा के साथ उन दिनों मैच में हारने वाली टीम को चिढ़ाने के चक्कर में कई बार मारपीट हो चुकी है…
हां, पता है, टीआरपी की गलाकाट प्रतियोगिता है, इसमें यहां तक तो ठीक है कहना कि -कोई नहीं टक्कर में…! लेकिन ये?
चलो एक बार कह लिए जोश में, कि मैंने फलाने को पीट दिया, अब आगे तो बताओ, कि नंबर वन होकर बदला क्या?
वैसे ये बहुत बड़ा सवाल है मीडिया के सामने। इसमें क्या ही जाना। दिक्कत है ऐसी भाषा और गली-मुहल्ले के अबोध बालकों की तरह हरकत करने की होड़ से, कि अगर ये लग गई, तो अगली बार कैसा विज्ञापन छपेगा? कल्पना करके देखिए जब #रिपब्लिक नंबर वन हो जाएगा तो क्या क्या कहेगा/लिखेगा?
इसलिए 22 साल से एक मीडियाकर्मी होने के नाते ये सलाह है(किसी डर में दी हुई) कि नफरती बनाए जा रहे समाज में बतौर सबसे सशक्त संचार माध्यम अपनी न्यूनतम शुचिता बनाए रखें। अगली पीढ़ी के काम आएगा। बेहतर होता कि अपनी टीम को खूब हौसला बढ़ाते, इन्क्रीमेंट दीजिए, पार्टी कीजिए क्योंकि टीम ‘जो स्क्रीन पर चल रहा है’, उसमें सबसे अच्छा कर रही है। इसका जश्न मनाते, इसके लिए मेरी तरफ से भी टीम और इसके लीडर समेत सारे कर्ता-धर्ताओं को बधाई पहुंचे।
*इस पोस्ट को किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं देखें, ये सिर्फ नंबर वन होने की न्यूनतम नैतिकता बनाए रखने की पैरोकारी है। क्योंकि ये नहीं बचेगा तो आगे वाली पीढ़ी तो छोड़िए, हमारी और हमारे साथ काम कर रही युवा पीढी भी सोच के स्तर पर सड़ जाएगी। और ऐसी हरक़त करने लगेगी, जिसकी संभावना मैंने ऊपर की चिंता में जताई है। इसलिए विवाद से बचें, मेरी पोस्ट नहीं, तो अपने अंदर झांके!

((वरिष्ठ पत्रकार कुमार विनोद के फेसबुक वॉल से साभार))

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