मनीषा धन्य है!
दुरूह राहें खोज लेती है;
भीष्म,विदुर, कृष्ण छोड़-
युधिष्ठिर खोज लेती है.
हमारा धर्म निकला है-
नहीं गीता, न वेद महान से;
धर्म फूला फलां है यहां-
एक महाजनी बयान से!
व्यास से कभी भेंट हो-
तो पूछना है-
‘जय’ से सिद्ध हैं सभी पुरूषार्थ!
यह पूछना है.
धर्मज्ञ कौन था इतिहास में-
कृष्ण या फिर युधिष्ठिर धर्मराज?
यक्ष को धर्म पुकारा आपने-
वह संवाद न होता-क्या था अकाज?
कहा – “श्रुतयो विभिन्ना”
और धर्मराज कहलाए!
फिर नास्तिक कौन है-
कौन धर्मारूढ़ समझाए?
ऋषियों के मत प्रमाणिक नहीं
हमारी राष्ट्रीय धारणा है
“जय” से उपजे धर्म की
यही आज अवधारणा है!
धर्म की स्थापना हुई-
कि वध हुआ?
सत् के सूत्र छूटे हांथ से-
राह अवरूद्ध हुआ!
पंडित वररुचि (२५/०३/२०२२)
Read: pandit varruchi, writer, yaksharudh dharma, Khabrimedia, poem,