Bihar Election: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजों के रुझान लगभग साफ हो चुके हैं।
Bihar Election: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजों के रुझान लगभग साफ हो चुके हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक आंकड़ों में एनडीए प्रचंड बहुमत की ओर बढ़ता दिख रहा है। बीजेपी और जेडीयू के बीच सबसे बड़ी पार्टी बनने की टक्कर नजर आ रही है, जबकि पिछली बार सबसे बड़ी पार्टी रही राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) इस बार तीसरे स्थान पर खिसकती दिखाई दे रही है। महागठबंधन के सीएम चेहरे तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) अपनी राघोपुर सीट से भी पीछे चल रहे हैं। स्पष्ट है कि जनता ने महागठबंधन और तेजस्वी को हराया नहीं, बल्कि नकार दिया है। जो पार्टी और नेता चुनाव तक बराबरी की टक्कर का दावा कर रहे थे, वे इस तरह कैसे धराशायी हो गए? आइए जानते हैं इसके पीछे के प्रमुख कारण।

आपको बता दें कि बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजे करीब आ चुके हैं। राज्य की जनता ने तेजस्वी यादव और राजद को बड़ा झटका दिया है। दोपहर के ताजा रुझानों में महागठबंधन (राजद-कांग्रेस-वाम दल) करीब 35 सीटों पर सिमटता दिख रहा है, जबकि एनडीए (बीजेपी-जेडीयू) लगभग 200 सीटों पर मजबूत स्थिति में है। तेजस्वी खुद अपनी सीट पर पीछे हैं।
16वें राउंड की गिनती पूरी होने के बाद स्थिति और स्पष्ट हो गई है। राघोपुर सीट पर महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) 9,912 वोटों से पीछे चल रहे हैं, जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी ने बढ़त मजबूत कर ली है। लगातार कई राउंड से पिछड़ने के बाद यह अंतर तेजस्वी के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है।
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52 यादव उम्मीदवार आरजेडी की जातिवादी छवि भारी पड़ी
आरजेडी ने इस चुनाव में 144 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, जिनमें 52 यादव शामिल थे। कुल टिकटों का लगभग 36% यादवों को देने से पार्टी की ‘जातिवादी’ छवि और मजबूत हो गई। इससे गैर-यादव पिछड़ों, अति पिछड़ों और अगड़ी जातियों का बड़ा हिस्सा महागठबंधन से दूर हो गया।
2020 के मुकाबले इस बार यादव उम्मीदवारों की संख्या 40 से बढ़कर 52 हो गई। बीजेपी ने इसे चुनाव प्रचार में ‘आरजेडी का यादव राज’ बताकर खूब भुनाया, जो शहरी मतदाताओं और मध्यम वर्ग में प्रभावी साबित हुआ। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि आरजेडी यादव टिकटों को सीमित रखती तो कुर्मी-कोइरी समेत कई पिछड़ी जातियों का समर्थन मिल सकता था।
सहयोगी दलों को बराबर का महत्व न देना
महागठबंधन की हार का बड़ा कारण सहयोगी दलों के साथ समन्वय की कमी भी रही। कांग्रेस, वामदलों और छोटी गठबंधन पार्टियों के बीच सीट शेयरिंग को लेकर लगातार असहमति देखने को मिली। तेजस्वी यादव पर ‘आरजेडी-केंद्रित’ रणनीति अपनाने का आरोप लगा, जिससे वोटों का ट्रांसफर कमजोर हो गया। महागठबंधन के साझा घोषणापत्र को ‘तेजस्वी प्रण’ नाम देना और प्रचार अभियान में सहयोगियों को पीछे रखना भी कई नेताओं को खटका। कांग्रेस के ‘गारंटी’ एजेंडे और तेजस्वी के ‘नौकरी देंगे’ वादे के बीच भी तालमेल नहीं दिखा। इससे गठबंधन एकजुट दिखने के बजाय बिखरा हुआ नजर आया।
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वादों का ठोस ब्लूप्रिंट न देना
तेजस्वी यादव ने बेरोजगारी, पेंशन, महिलाओं के लिए योजनाओं और शराबबंदी की समीक्षा जैसे बड़े वादे किए, लेकिन इन योजनाओं का कोई ठोस ब्लूप्रिंट सामने नहीं रख पाए। ‘हर घर एक सरकारी नौकरी’ जैसे दावे के लिए वे बार-बार कहते रहे कि दो दिन में योजना आएगी, लेकिन चुनाव खत्म होने तक भी स्पष्ट रोडमैप नहीं दिया गया। इससे मतदाताओं में अविश्वास पैदा हुआ।
महागठबंधन पर ‘मुस्लिमपरस्त’ छवि का आरोप
महागठबंधन पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप इस चुनाव में भारी पड़ा। मुस्लिम बहुल इलाकों में भले ही आरजेडी को फायदा मिला हो, लेकिन राज्य के अन्य हिस्सों में इसका नुकसान हुआ। कुछ क्षेत्रों में यादव मतदाताओं ने भी आरजेडी को समर्थन नहीं दिया। वक्फ बिल लागू न करने का वादा और कुछ धार्मिक मुद्दों पर आरजेडी के बयान बीजेपी के लिए बड़ा हथियार बन गए। बीजेपी ने लालू यादव के पुराने भाषणों को भी प्रचार में खूब इस्तेमाल किया, जिसका असर दिखाई दिया।

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लालू प्रसाद यादव की भूमिका को लेकर तेजस्वी की ‘दोहरी रणनीति’
तेजस्वी यादव इस चुनाव में अपने पिता लालू यादव को लेकर किसी स्पष्ट रणनीति पर नहीं दिखे। उन्होंने लालू की विरासत का लाभ तो लिया, लेकिन प्रचार सामग्री में उनकी तस्वीर को छोटा कर ‘नई पीढ़ी’ का संदेश देने की कोशिश की। यह ‘दोहरी नीति’ मतदाताओं को समझ नहीं आई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपनी रैली में कहा कि ‘तेजस्वी, लालू के पाप छिपा रहे हैं।’ तेजस्वी ने सामाजिक न्याय की छवि को आगे बढ़ाया, लेकिन ‘जंगल राज’ के आरोपों से दूरी बनाने की कोशिश ने कई पुराने समर्थकों को नाराज़ किया।

