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Jharkhand सरकार की इस योजना से कुम्हारों को मिला नया जीवन, मिट्टी कला को फिर से मिली रफ्तार

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Jharkhand: झारखंड सरकार की पहल ने पारंपरिक मिट्टी कला से जुड़े कुम्हारों के जीवन में नई रौनक भर दी है।

Jharkhand News: झारखंड सरकार की पहल ने पारंपरिक मिट्टी कला (Clay Art) से जुड़े कुम्हारों के जीवन में नई रौनक भर दी है। दिवाली (Diwali) के दौरान मिट्टी के दीपक, धूपदान, कलश और अन्य वस्तुओं की मांग में जबरदस्त वृद्धि होती है, लेकिन त्योहार खत्म होने के बाद इन उत्पादों की बिक्री घटने से कुम्हारों की रोजी-रोटी पर असर पड़ता है। पहले हाथ से चलने वाले चाक की धीमी गति के कारण उत्पादन सीमित रहता था, जिससे यह व्यवसाय धीरे-धीरे कमजोर पड़ रहा था।

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झारखंड सरकार (Jharkhand Government) के उद्योग विभाग और माटी कला बोर्ड ने इस स्थिति को देखते हुए कुम्हारों के लिए आधुनिक इलेक्ट्रिक चाक मशीनें 90% सब्सिडी पर उपलब्ध कराई हैं, साथ ही बैंकों के माध्यम से पूंजी की व्यवस्था की है। इस कदम से कुम्हारों की उत्पादकता कई गुना बढ़ गई है। गोड्डा जिले के शिवपुर इलाके में अब एक कुम्हार दिनभर में 1200 से 1500 मिट्टी के दीपक तैयार कर पा रहा है, जबकि पहले यह संख्या केवल 600 से 700 तक सीमित थी।

आधुनिकता से आई गिरावट, लेकिन सरकार की योजना से लौटी उम्मीद

बीते वर्षों में प्लास्टिक और चाइनीज लाइटों की भरमार से मिट्टी के पारंपरिक उत्पादों की मांग में गिरावट आई थी। इससे कुम्हारों की आर्थिक स्थिति डगमगाने लगी थी। लेकिन माटी कला योजना के अंतर्गत मिली तकनीकी और आर्थिक सहायता से अब कुम्हार फिर से आत्मनिर्भर बन रहे हैं।

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कुम्हार रासबिहारी पंडित, संतलाल पंडित और श्याम पंडित जैसे शिल्पकारों का कहना है कि अब वे अपने परिवार को न सिर्फ बेहतर जीवन दे पा रहे हैं, बल्कि शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा भी सुनिश्चित कर पा रहे हैं। इस योजना ने न सिर्फ उनका आजीविका साधन बचाया है, बल्कि सम्मानजनक जीवन भी लौटाया है।

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सरकार की योजना बनी संजीवनी, मिट्टी कला को नया जीवन

माटी कला बोर्ड योजना (Mati Kala Board Scheme) के जरिए झारखंड सरकार ने न सिर्फ कुम्हारों के रोजगार को बचाया है, बल्कि एक पारंपरिक कला को नई पहचान और सम्मान भी दिया है। आधुनिकता की दौड़ में जब यह कला लगभग खोती जा रही थी, तब यह योजना उनके लिए संजीवनी बनकर आई। इस पहल ने यह सिद्ध किया है कि अगर सरकार की नीतियां सही दिशा में हों, तो ग्रामीण हस्तशिल्प और पारंपरिक उद्योग भी आधुनिक बाजार में अपनी ठोस जगह बना सकते हैं।