चुनावी रैली में ‘ मटन’, ‘ मछली’ का क्या काम है….!

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अमर आनंद, वरिष्ठ टीवी पत्रकार

चार सौ पार और तीसरी बार के मद्धिम होते सुर के बीच तेज होते चुनाव प्रचार में ‘ मटन’ और ‘ मछली’ की एंट्री कम से कम मोदी की गारंटी का हिस्सा तो नहीं लगती बल्कि उसे मूल मुद्दों की कमी, डगमगाते हुए आत्मविश्वास से जोड़कर ही देखा जाना चाहिए। नवरात्रि के पहले मछली खाती हुई तेजस्वी की तस्वीर और लालू और राहुल की मटन खाते हुए पुरानी तस्वीर को हिंदू आस्था से जोड़कर विपक्ष पर प्रहार करना प्रधानमंत्री पद की गरिमा और वजन के हिसाब से नहीं लगता और उस वक्त तो बिलकुल नहीं, जब जनता सरकार से दस सालों के कामकाज का हिसाब मांग रही हो। हिंदू और मुसलमान को बांटने वाले ऐसे मुद्दे उठाने की कोशिश करना एक तरह से तब और बेमानी है जबकि मोदी खुद ही मानते हैं कि खान – पान किसी व्यक्ति का निजी मामला है और यह सही भी है क्योंकि वो खुद अपनी पार्टी के नॉर्थ ईस्ट के नेताओं को न तो बीफ खाने से रोक पाते है और न ही उनकी पार्टी बीफ कंपनी से चंदा लेने से परहेज कर पाती है।

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मोदी के खिलाफ राहुल और अखिलेश के साथ – साथ तेजस्वी भी अपने बयानों से मिर्ची लगाने को तैयार रहते हैं।
बीफ कंपनियों से और शराब घोटाले के आरोपी को ईडी के जरिए प्रताड़ित कर चंदा लेना, विपक्ष के नेताओं को ईडी और सीबीआई के जरिए चुनाव के ठीक पहले परेशान करना, दागी नेताओं को अपनी पार्टी में लाना,अपनी पार्टी के अपराधी नेताओं पर कार्रवाई नहीं करना ये चुनावी मुद्दा हो सकता है और मोदी और उनकी पार्टी को इस सब मुद्दों पर बात करनी चाहिए।
मोदी विरोध को देश विरोध से जोड़कर पेश करने वाली बीजेपी में मोदी के विरोधी नहीं है ऐसा नहीं कहा जा सकता। इस चुनाक में सैंकड़ों मोदी विरोधी नेताओं ने चुनाव में बीजेपी को अलविदा कह दिया है।
गुजरात, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब इन राज्यों में जहां पहले और दूसरे दौर का मतदान होना है वहां राजपूत और किसान संगठनों ने विराध की मशाल जला रखी। गुजरात में प्रदर्शनकारियों के खलनायक मोदी के मित्र और राजकोट के पार्टी उम्मीदवार विजय रूपाला है, तो पश्चिमी यूपी में जयंत जैसे पुराने विरोधियों को साथ लेना कारगर साबित नहीं हो रहा है।

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यह चुनाव जिस दौर में हो रहा है उस दौर में एक तरफ बीजेपी ‘ राम जी करेंगे बेड़ा पार, उदासी मन काहे को डरे’ वाला विश्वास लेकर चल रही है और दूसरी तरफ राम की ही जाति यानी राजपूत उनके मुखालफत में गोलबंद हो रहे है। यूपी में तो राजपूतों को लेकर अजीब से स्थिति है। राम मंदिर का लक्ष्य हासिल करने वाले सीएम योगी आदित्यनाथ जहां हरियाणा के सीएम के बाद दिल्ली के निशाने पर समझे जा रहे है वहीं खुद को रामभक्त कहते हुए नहीं थकने वाले बृज भूषण शरण सिंह ने पार्टी की नाक में दम करके रखा हुआ है। वहीं सत्ता से करीब कहे जाने वाले ब्रजेश सिंह जेल जा चुके हैं। पूर्वांचल में राजपूतों के विरोध प्रदर्शन का प्रवेश नहीं हुआ और इसको राजनाथ और योगी जैसे नेता रैलियों ने मैनेज करने में जुटे हुए है लेकिन इस बात का जवाब कौन देगा कि वसुंधरा और शिवराज को लगभग महत्वहीन कर देते वाली बीजेपी में पार्टी के तीसरे बड़े ठाकुर नेता योगी की कुर्सी चार जून के बाद सुरक्षित रह पाएगी और दिल्ली उन्हें परेशान नहीं करेगी? राजपूत के साथ – साथ किसान और मध्यम वर्ग के बेरोजगार युवा बीजेपी के लक्ष्य को पलीता लगाने में लगे हुए हैं इंडिया गठबंधन अपने घोषणा पत्र और रैलियों के जरिए सता विरोधी मतों को आकर्षित करने में जुटा हुआ है।

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दक्षिण में कर्नाटक के अलावा तकरीबन सभी राज्यों में असहज बीजेपी, महाराष्ट्र और गुजरात में कम ताकतवर होती, राजस्थान और एमपी में डगमगाती बीजेपी को के लिए योगी यूपी में बहुत बड़ा सहारा है ऐसे दौर में जब बगल के राज्य बिहार में तेजस्वी के तेज के सामने थके हुए नीतीश बीजेपी के लिए किसी काम के नहीं है और बंगाल ने ममता की आक्रामकता का जवाब पार्टी के पास नहीं है। इसके साथ ही दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में पार्टी का आत्मविश्वास बुरी तरह कमज़ोर हुआ है। ऐसे दौर में सवाल यह है मोदी कि गारंटी पर देश कितना भरोसा करेगा और क्या उन्हे तीसरी बार पीएम की कुर्सी पर देखना चाहेगा या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है।