Report-Vinod Kumar,Senior Journalist
केंद्रीय हिंदी निदेशालय,भारत सरकार के निदेशक प्रो.सुनील बाबुराव कुलकर्णी ने कहा कि, साहित्य और सिनेमा दोनों हमारे वर्तमान जीवन के अविभाज्य अंग है। इन दोनों से मनुष्य जीवन और समाज जीवन अत्यंत प्रभावित हुआ है।, प्राय: होता रहा है और आगे भी भविष्य में निरंतर होता रहेगा। इसलिए इसकी ओर हममें से कोई भी अनदेखी नहीं कर सकता। हम इसे हल्के में नहीं ले सकते। मेरे सामने सवाल है कि साहित्य और सिनेमा इन दोनों में सबसे प्रभावी माध्यम कौन सा है?
प्रो. कुलकणी ने ‘साहित्य और सिनेमा’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के मंच से कहा कि एक समय था जब उत्कृष्ट साहित्यकृतियों पर सिनेमा बनता था, उनका फिल्मांकन होता था। उन तमाम साहित्य कृतियों को जो कालजयी सिद्ध हुई है या जो हर काल में अपनी प्रासंगिकता रखती है, हर समय की समस्या से उबरने के उपाय हम उस कृति में से ढूंढ सकते हैं, ऐसी साहित्यिक कृतियों को शुरू में फिल्मों के लिए चयनित किया गया। उन पर फिल्में बनाई गई। उनका फिल्म रूपांतरण किया गया। अब नया दौर है ऐसा है की फिल्म के आधार पर साहित्य रचा जा रहा है। यह सोचने का विषय है।
उन्होंने कहा कि फिल्मों से प्रभावित होकर साहित्य सृजन हो रहा है। सिनेमा दृश्य-श्रव्य माध्यम के रूप में जाना पहचाना जाता है। जो अनपढ़ है पढ़े-लिखे नहीं है, जिनको भाषा का ज्ञान तक नहीं है ऐसे लोग भी फिल्म देखकर उसे कुछ पा सकते हैं। भले ही कुछ पाए या न पाए बल्कि उनका मनोरंजन तो हो सकता है।आनंद की अनुभूति तो वह कम से कम ले सकते हैं। नई पीढ़ी को दृश्य श्रव्य माध्यम से शिक्षा देना प्रभावशाली है। पौराणिक ज्ञान देने में, ऐतिहासिक ज्ञान देने में जो कार्टून बने हैं छोटा भीम आदि उसके माध्यम से ज्ञान प्राप्त हो रहा है। रूपांतरण महत्वपूर्ण है। समाज को कोई संदेश देना है तो हम फिल्मों के माध्यम से दे सकते हैं क्योंकि साहित्य कृति की अपनी मर्यादा हैं।
साहित्य वही पढ़ सकता है जिसको पढ़ना लिखना आता है। पढ़ा-लिखा आदमी भी साहित्य कृति के उद्देश्य को संभवत: शत प्रतिशत ग्रहण नहीं कर पाता। उसमें भाषिक ज्ञान की मर्यादा है। व्यक्तिगत ज्ञान की मर्यादा है। लेकिन फिल्म में यह सारी मर्यादाएं समाप्त हो जाती है। तीन सौ पचास पृष्ठ का उपन्यास पैतालीस मिनट के फिल्म रूपांतरित होकर अपना प्रभाव दर्शकों पर छोड़ता है। उसकी संप्रेषणीयता सौ प्रतिशत बढ़ जाती है। फिल्मांकन से हम अधिकाधिक लोगों तक पहुंच सकते हैं। विदेशों में हिंदी सिनेमा के माध्यम से लोगों ने हिंदी सीखी है।
देश-विदेश में हमारे फिल्मी गाने लोकप्रिय है। पिछले पच्चीस वर्षों में आई हुई फिल्मों ने समाज का पूरा दृष्टिकोण बदल दिया है। सफल जीवन जीने के लिए दृष्टिकोण सकारात्मक होना चाहिए। इन दिनों कई फिल्में आ गई जिन्होंने दिव्यांगों की प्रति देखने का समाज का दृष्टिकोण सकारात्मक रूप में परिवर्तित कर दिया। अमीर खान की ‘तारे जमीं पर’ इसका उदाहरण है। आखिर में कुछ पंक्तियों के साथ अपनी बात समाप्त की, “ सूरज जैसा बनना है तो सूरज जैसा जलना होगा, नदियों-सा आदर पाना है तो पर्वत छोड़ निकलना होगा, हम हिंदुस्तान के बेटे हैं, क्यों सोचे की राह सरल होगी, हर समस्या का हल होगा, आज नहीं तो कल होगा, लेकिन हर समस्या का हाल होगा।”
‘साहित्य और सिनेमा’ विषय पर विचार विमर्श के लिए वसई के संत गोन्सालो गार्सिया महाविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा एक से तीन फरवरी के दौरान तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का सफल आयोजन किया गया था। यह आयोजन केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली, उच्च शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार के संयुक्त तत्वावधान में किया गया था।इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में सिनेमा और साहित्य से जुडी देशभर की हस्तियों एवं शोधार्थीयों ने हिस्सा लिया।
इस मौके पर सुप्रसिद्ध हिंदी कथाकार कवि और फिल्मकार उदय प्रकाश जी ने अपने बीजभाषण में कहा कि, ज्ञान सबसे बड़ी सत्ता देता है। सबसे कम सत्ता जिसके पास होती है वह सच्चा कलाकार होता है। और वह पावरलेस होता है। जितनी अच्छी फिल्में, जितनी अच्छी रचनाएं, जितना अच्छा संगीत, जितना अच्छा साहित्य, वही लिख सकता है जो सबसे नीचे है। वो ऊपर बैठा हुआ कोई नहीं लिख सकता। तो कहीं न कहीं जो पूरा माध्यम है वह पत्रकारिता का हो, सिनेमा का हो, या साहित्य का हो वह पावरलेसनेस की अभिव्यक्ति है। सबसे बड़ी जिम्मेदारी जो है आज समाज को, मनुष्यता को, पर्यावरण को, टेक्नोलॉजी को, सबको बचाने की वह साहित्य और सिनेमा पर है। प्रेरणा का काम साहित्य करता है,शब्द करते हैं। आज के जनरेशन की चिंताएं बहुत बड़ी है। अब हायपर सेंसिटिविटी है। लोग एक शब्द से आहत हो जाते हैं। ऐसे वक्त में हमारी जिम्मेदारी और बढ़ जाती हैं। हम कोई ऐसी चीज ना करें कि कहीं आग लगे। कोशिश करे की पानी बरसे, शांति हो। साहित्यकार और फिल्मकार नकल की नकल करते हैं।और यह नकल कोई बुरी चीज नहीं।
यह आयोजन केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली, उच्च शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार के संयुक्त तत्वावधान में किया गया था।इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में सिनेमा और साहित्य से जुडी देशभर की हस्तियों एवं शोधार्थियों ने हिस्सा लिया। संगोष्ठी में केंद्रीय हिंदी निदेशालय के निदेशक प्रो.सुनील कुलकर्णी, सुप्रसिद्ध हिंदी कथाकार, कवि एवं फिल्मकार उदय प्रकाश, संगोष्ठी प्रभारी एवं केंद्रीय हिंदी निदेशालय के सहायक निदेशक डॉ. मोहम्मद नसीम, संत गोन्सालो गार्सिया महाविद्यालय के हिंदी विभाग अध्यक्ष डॉ. रामदास तोंडे, प्राचार्य डॉ.सोमनाथ विभूते, सुप्रसिद्ध सिने लेखक श्री. विनोद ‘विप्लव’, श्री. धीरज मेश्राम, डॉ.शीतला प्रसाद दुबे, देशभर से आए प्रमुख हिंदी विद्वान डॉ. संदीप रणभीरकर, डॉ.आशुतोष कुमार मिश्र, श्री.हार्दिक भट्ट, डॉ. मोहसिन अली खान, डॉ. अपर्णा पाटील, प्रो.बिपुल कुमार, डॉ.मुन्ना पाण्डेय, डॉ. गंगाधर चाटे, डॉ.संतोष मोटवानी, डॉ. तब्बसुम खान, प्रो.दिलीप शाक्य, डॉ. सचिन गपाट आदि विशेषज्ञों ने साहित्य और सिनेमा के विविध पहलुओं पर अपने सारगर्भित विचार रखें।