Birsa Munda Biography in Hindi

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Birsa Munda: भारतीय इतिहास में वीरता की न जाने कितनी कहानियां है, जो हमें प्रेरित करती रहती हैं। न सिर्फ प्रेरित करती हैं बल्कि हमें अपने हम अपने हल के लिए लड़ना भी सिखाती हैं। उन्हीं में से एक हैं कहानी है बिरसा मुंडा (Birsa Munda) की। झारखंड (Jharkhand) की धरती पर जन्मे बिरसा ने आदिवासी समुदाय (Tribal Community) की आवाज बनकर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाया था। उनके संक्षिप्त, परन्तु ज्वलंत जीवन में क्रांति की चिंगारी प्रज्वलित थी जो आज भी हृदय को आक्रांत करती है। क्या आप इन नायक की कहानी जानते हैं, अगर नहीं तो आज के इस लेख में हम आपको Birsa Munda Biography in Hindi में बताने जा रहे हैं, आइए विस्तार से जानते हैं Birsa Munda Biography in Hindi….

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कब हुआ था जन्म

Birsa Munda का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के छऊँट, खूंटी जिले (अब रांची जिला) में एक मुंडा परिवार में हुआ। विरसा मुंडा की माता पाउली व पिता सुगना मुंडा ने उनके जन्म के दौरान गाय के बछड़े के सींग की आवाज सुनी, जिसे उस समय एक शुभ शगुन माना जाता था। यही कारण है कि उनका नाम ‘धर्म बिरसा मुंडा’ रखा गया, जिसे बाद में छोटा हुआ और वे बिरसा के नाम से प्रसिद्ध हुए।

बिरसा (Birsa Munda) बमुश्किल छह साल के थे जब उन्होंने अपने पिता को खो दिया। उनके दादा गाँव के मुखिया थे और बिरसा के पालन-पोषण का पूरा भार उनके दादा पर आ गया और बिरसा के दादा ही उनका पूरा पालन पोषण किया। बचपन से ही बिरसा प्रकृति प्रेमी थे, जंगल के आंचल में उनकी जिंदगी खेलती थी। उनके मन में आदिवासी परंपराओं और संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा थी।

Birsa Munda की शिक्षा

बिरसा (Birsa Munda) को गाँव के पाहन (पुजारी) द्वारा शिक्षित किया गया। उन्होंने हिंदी, मुंडारी और खड़िया भाषाओं में प्रवीणता प्राप्त की। धर्मग्रंथों और इतिहास के अध्ययन ने उनकी चेतना को जगाया। तत्कालीन सामाजिक विषमताओं, अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों और आदिवासी समुदाय के शोषण को देखकर उनके मन में विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित हुई।

बीरसा अपने गांव के मुखिया बनने के लिए जर्मनी धर्म गुरुओं से दीक्षा ली। उनके ज्ञान और नेतृत्व क्षमता को देखते हुए 1894 में सिदो कान्हू आंदोलन के नेता फागू मुंडा ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया। यहीं से बिरसा के जीवन का विद्रोही अध्याय शुरु होता है।

ऐसे जगी थी आजादी की ललक

बिरसा मुंडा का बचपन आदिवासी संस्कृति के साथ गहरे रूप से जुड़ा था। उनके परिवार में भूमि, जल, और वन्यजीव के साथ जीने का अनूठा अनुभव हुआ, जिसने उन्हें अपनी जनजाति और समृद्धि के लिए संघर्ष करने का संजीवनी मौका दिया। उनका संघर्ष शुरू हुआ जब उम्राव सिंह ने अपने बचपन के दौरान अपने परिवार के साथ वन्यजीव से जुड़ी खेती का अनुभव किया। उन्होंने समझा कि उनके लोग अपनी ज़िंदगी को स्वतंत्रता, समृद्धि, और समाज में अच्छाई की दिशा में बदल सकते हैं।

बिरसा मुंडा (Birsa Munda) ने अपनी स्थानीय समुदाय में एकजुटता बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए। उन्होंने अपने लोगों को सांघर्षित और एकमेव बनाने के लिए भूमि, जल, और वन्यजीव से जुड़े हक की रक्षा करने का संकल्प किया। उन्होंने 1899 में ‘बीरशैल संस्थान’ की स्थापना की, जो एक स्वतंत्रता संगठन था जो उनके लोगों की मुक्ति और स्वावलंबन की दिशा में काम करता था। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में, इस संस्थान ने लोगों को अधिक सशक्त किया और उन्हें खुद की संस्कृति की मूल्यों के प्रति गर्वित बनाया।

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बिरसा मुंडा (Birsa Munda) ने अपने जीवन के दौरान आदिवासी समुदाय के हित में कई आंदोलन चलाए। उन्होंने अपने लोगों को ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एकजुट होकर खड़ा होने के लिए प्रेरित किया और उन्होंने अपने संघर्ष में नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए जूझा।

दल का गठन और धर्म की स्थापना

अंग्रेजों की लगातार ज़मींदारी प्रथा, वन अधिनियम और कर वसूली के दमनकारी तरीकों के खिलाफ बिरसा (Birsa Munda) ने उल्लेखनीय दल नामक गुप्त संगठन बनाया। इस संगठन का उद्देश्य अंग्रेजी राज को उखाड़ फेंकना और मुंडाओं के स्वतंत्र राज्य की स्थापना करना था। उन्होंने एक नया धर्म “बिर्सागित” की भी स्थापना की, जो ईश्वर से सीधे जुड़ने और सामाजिक बुराइयों को मिटाने पर जोर देता था।

विद्रोह की चिंगारी और मुण्डा विद्रोह

1895 में बिरसा के नेतृत्व में मुंडा विद्रोह की चिंगारी भड़की। अंग्रेजी ठिकानों और पुलिस थानों पर हमले हुए। वन विभाग (Forest Department) के अधिकारियों को खदेड़ दिया गया। बिरसा के प्रभुत्व को देखते हुए अंग्रेजों ने उन्हें 1895 में गिरफ्तार कर लिया, लेकिन जनता के अथक प्रयासों से वह रिहा हो गए। रिहाई के बाद उन्होंने विद्रोह को और तेज कर दिया। उन्होंने आसपास के क्षेत्रों में भी संगठन का विस्तार किया।

बिरसा से डरते थे अंग्रेज


जेल से रिहा होने के कुछ ही दिन बाद फिर से बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को उलगुलान विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इस विद्रोह में आदिवासियों ने अंग्रेजों के कई ठिकानों को नष्ट कर दिया।

अंग्रेजों को बिरसा मुंडा के विद्रोह से बहुत डर लग गया। उन्होंने बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें जेल में डाल दिया। जेल में बिरसा मुंडा का स्वास्थ्य बिगड़ गया और वे 9 जून, 1900 को जेल में ही मर गए। बिरसा मुंडा एक महान जनजाति नायक थे। उन्होंने आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। वे एक कुशल संगठनकर्ता और नेता थे। वे आदिवासियों के बीच बहुत लोकप्रिय थे। बिरसा मुंडा के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता।

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बिरसा मुंडा के विचार और आदर्श

आदिवासियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए।
आदिवासियों को एकजुट होना चाहिए।
आदिवासियों को अपनी संस्कृति और परंपराओं को बचाना चाहिए।
आदिवासियों को शिक्षित और जागरूक होना चाहिए।
बिरसा मुंडा के आदर्श आज भी आदिवासियों के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं।

बिरसा मुंडा का प्रभाव

बिरसा मुंडा का प्रभाव केवल आदिवासियों तक ही सीमित नहीं था। उनका प्रभाव पूरे भारत में फैला था। बिरसा मुंडा के विचारों से प्रभावित होकर कई अन्य लोग भी आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने लगे।
बिरसा मुंडा के विद्रोह ने आदिवासियों में एक नई चेतना पैदा की।
बिरसा मुंडा के विचारों से प्रभावित होकर कई अन्य लोग भी आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने लगे।
बिरसा मुंडा के विचारों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को भी प्रभावित किया।