किसी गॉंव में एक सेठ के पड़ोस में कोई रोज कमाने खानेवाला व्यक्ति रहता था। जब भी वह खाने पर बैठता तो वह पूछता कि क्या कर्जा तोड़ा और फिर क्या कर्जा दिया? यदि पत्नी इन प्रश्नों में एक का भी उत्तर नकारात्मक देती तो वह खाना नहीं खाता। सेठ की पत्नी ने एक दिन यह सुन फिर उसने ध्यान दिया कि वह मजदूर हर बार खाने के पहले प्रश्न पूछता है और पत्नी के कहने पर कि उसने कर्ज तोड़ा एवं जोड़ा भी है वह भोजन ग्रहण करता था।
सेठ की पत्नी को जिज्ञासा हुई कि यह रोज कमाने खानेवाले व्यक्ति की पत्नी रोज हीं किस प्रकार के कर्जों का कारबार करती है। उसने सेठ से इस बात की चर्चा की। सेठ से आग्रह किया कि वह पता करें कि यह क्या व्यापार है?
सेठ का भी कौतुहल जागा कि आखिर यह नंगा आदमी किसे कर्जे देता लेता है अगले हीं दिन सेठ ने पड़ोसी को बुलाया। चाय पिलाई और बड़े मीठे ढ़ंग से पूछा कि आप रोज हीं किस प्रकार के कर्जे लेते देते रहते हैं।मेरी पत्नी रोज हीं आपकी बात सुनती है और हैरान होती है और मैं भी सुन कर हैरान हूँ कि आपका व्यवहार और व्यापार में कोई सामंजस्य नहीं दिखता।यदि कोई राज की बात न हो तो हमें बताओ कि कर्ज का क्या व्यापार है?
रोजदार ने सीधा हीं कहा कि मुझ पर मॉं बाप का कर्ज है जो उन्होंने जन्म से लेकर जवान होने तक मेरा पालन किया और मैं अपने बच्चे का पालन कर रहा हूँ। यह मैं रोज हीं उसे कर्ज दे रहा हूँ। यह मेरा कर्तव्य भी है। अतः मैं अपने मॉं बाप एवं बच्चे के खाने के बाद हीं खाता हॅूं अन्यथा नहीं खाता। बस इतनी सी बात है। कहानीकार यहॉं मौन हो जाता है।
यह कथा परिवार का आधारभूत कारण. व्याख्या एवं उद्देश्य की व्याख्या करता है।
लेकिन इस कथा से हम केवल मुखिया के मन की बात जान सके और उसके व्यवहार का कार्य—कारण समझ सके। लेकिन क्या यही मंतव्य मुखिया के बच्चे के पास भी गया? क्या वह बच्चा कालान्तर में इस संकल्प के साथ जीएगा? हमारी कहानी इन प्रश्नों पर मौन है।
परिवार एक सुरक्षा कवच है। यह एक व्यक्ति को विज्ञान, प्राविधि, धन, इतिहास एंव व्यक्ति विशेष के गुण -दोष को सुरक्षित करने की व्यवस्था है। ज्ञान (विज्ञान से विलग) संग्रह किए जाने का कोई उपाय नहीं है। यह गुरू से शिष्य तक पहुँच जाए – तब हीं यह आगे जाती है । पुस्तक के रूप में वेद. उपनिषद् हमें कहॉं ज्ञानी अथवा विज्ञानी बना पाते हैं। आवश्य इनका उपयोग किसी ब्राह्मण वृत्ति वाले पुरूष द्वारा पुनः किया जा सकता है। इस सीमित परिपेक्ष्य में शायद परिवार संग्रह कर्ता के तौर पर कल्याण कारी सिद्ध हो सके। हम देखते हैं कि सत्यकाम के समय ज्ञानियों की भीड़ में संग्रह अथवा ज्ञान-विज्ञान का अगली पीढ़ी को दान सुलभ था। किसी भी परिवार के योग्य रत्न को गुरू ज्ञानधन अर्पित कर देता था। शिष्य के लिए भी पुत्र संज्ञा का वैदिक ग्रंथों ने प्रयोग किया है। परिवार तरल था। यही स्थिति आज भी उन लोगों में देखी जा सकती है जहॉं संग्रह करने लायक कुछ भी नहीं है।
संग्रह एवं परिवार की पुष्टि साधारण बौद्धिक स्तर एवं कर्मठ श्रेणी में हीं होती है । यह आयोजन किसी साधारण श्रेणी के धन संपदा के संग्रहण में हीं काम आ सकती है।
हमने कितनी कहानियॉं सुनी हैं। मनु –सतरूपा, च्वण ऋषि, श्रवण कुमार, सत्यकाम जाबाला, रामायण और फिर महाभारत या अशोक प्रियदर्शी या औरंगजेब! इसी संदर्भ में याद आता है कि एक लेविस मॉर्गन एवं एंजेल्स ने वैज्ञानिक भौतिकवाद एवं द्वंद्ववाद के आधार पर उन्नीसवीं सदी में एक पुस्तक “ Family, Private, Property and State” तैयार की थी। यह भौतिक अद्वैत के विश्व दृष्टि का एक परिणाम समझा जा सकता है। इस दृष्टि को किसी भी अर्थ में आदि शंकराचार्य के चैतन्य अद्वैत दृष्टि से अच्छा अथवा कमजोर कहना हमारी विश्लेषणात्मक बुद्धि की कमी हीं दर्शायगी। क्योंकि दोनों हीं दृष्टि अपने आप में अधूरे हैं।
सब से पहले आज की स्थापित दृष्टि के आलोक में चर्चा करें। श्री मॉर्गन मानव समाज का सफर बर्बर जंगली सभ्यता आधुनिक सभ्यता अर्थात उत्तरोत्तर विकास की कथा बताते हैं।
उनकी समझ है कि पहले आदमी जानवरों की तरह हीं संतति तो पैदा करते थे। लेकिन उसकी जिम्मेदारी किसी युगल जोड़े की नहीं होती होगी। कृषि एवं अन्य संपत्ति की उत्पत्ति एवं संग्रह का संकल्प जब मानव में जागी तब शायद परिवार एवं अपने परिवार के लिए संपत्ति संग्रह या किसी हुनर का बाप से बेटे को देने का चलन पैदा हुआ होगा।
हम विकासवाद के सिद्धान्त का विरोध नहीं करते। लेकिन वह काल बहुत पीछे छूट चुका है। वैदिक काल के साहित्य्रग्रंथ (षड् दर्शन इत्यादि के साथ) एवं संस्कृत भाषा मानव जाति की मानसिक यात्रा एवं भाषा की उत्कृष्टता तो सिद्ध करता हीं है। इसी मानव जाति का भारतीय समूह वैदिक साहित्य एवं भाषा से हाफ गर्ल प्रेण्ड तक की यात्रा कर रहा है। यह साहित्य एवं भाषा दोनों हीं दृष्टि से विकास तो नहीं दिखता ।
इस पर भी मॉर्गन की पश्चिमी जड़वादी समाज की दृष्टि एवं उनके सिद्धान्त की पुष्टि केवल सामान्य या जिसे कहें मध्यवर्गीय या कामकाजी परिवारों द्वारा हीं होता दिखेगा। यहॉं भी कोई आइंस्टीन. प्लांक या स्टीफेन हॉकिंगस या चर्चिल धन का प्रयोग करता तो दिखेगा लेकिन परिवार एवं संतति के लिए बचाने का. संग्रह की चेष्टा करते नहीं दिखेगा ।
विकासवाद में हजार तकनीकी एवं बारीक असमर्थता है एवं वैज्ञानिकों ने उन पर विशद चर्चा की है। इस पर भी यह पश्चिम खास तौर पर इंग्लैण्ड में यह मान्य है अतः भारत भी यही मानता है। लेकिन निम्न पर विचार करें:
• Homosapien के प्रचीनतम अवशेष ( Narmada man 2.5 lacs years) के भी मस्तिष्क का आयतन आज के मानव के मस्तिष्क के आयतन के हीं बराबर था। अतः चिन्तन क्षमता उतनी होनी चाहिए जितनी आज है। और यह अन्तिम प्रमाण नहीं है। यह केवल प्राचीनतम उपलब्ध प्रमाण है।
• भारत में भाषा की यात्रा संस्कृत से पाली एवं दूसरी कमजोर भाषा की ओर होती दिखती है। भाषा परिष्कृत से घटिया की ओर! यह विकासवाद की मान्यता के उलट है।
• विकास किसी में कमी हो तो वह उन कमियों को हटा कर बेहतर हुनर या क्षमता प्राप्त करना को कहते हैं। एक बात जो हमें सामान्य बुद्धि से दिखता है कि कोई गदहा किसी दूसरे गदहे से कम या ज्यादा गदहा नहीं होता। अमीबा से लेकर बन्दर तक हर जीव अपनी पूर्ण क्षमताओं के साथ पैदा होता एवं जीता है। अतः किसी भी जगह विकास की गुंजाइस दिखती नहीं है। केवल आदमी को हीं अपनी क्षमताओं का विकास करना एवं उस पर सावधानी से काम करने की जरूरत होती है।
सत्यकाम की कथा अथवा च्वण ऋषि की कथा – तब की है जब भारत में बौद्धिक रूप से सक्रिय ब्राह्मण वर्ग था। ये ऋषि कई बार परिवार की जिम्मेदारियों की अनदेखी कर जाते थे क्योंकि वे किसी महती ज्ञान अथवा वैज्ञानिक प्राविधि में व्यस्त होते थे। जैसे कि आज के किसी आइंस्टीन इत्यादि का पारिवारिक जीवन उनकी बौद्धिक- आध्यात्मिक कामयाबियों की भेंट चढ़ जाता है। ये वे लोग थे – जिन्होंने परजन्य (पृथ्वी के कारकत्व) को पूरी तरह जानने की घोषणा की थी। यह आज का विज्ञान नहीं कह सकता।
लेकिन कालान्तर में ऐसे ब्राह्मणों की कमी हुई जो वैदिक “त्रैत चिन्तन एवं सिद्धि”की मूर्ति थे एवं तब नेतृत्व प्रदान करने वाले लोगों को भी सीमित जानकारी के आधार पर जिन्दगी चलाने की आवश्यक्ता हुई। इनके व्यवहार का हीं सामान्य जनता भी अनुकरण करती थी । Excellence या अन्तःचतुष्टय पर प्रचलित गुरुओं ने अथवा गरुकुलों ने काम करना बन्द कर दिया या हो गया। तब कोई सत्यकाम किसी छान्दोग्य उपनिषद् का ऋषि हो सके संभावनाएँ कम होती गयीं। Survival हमारे मानव एवं सामाजिक दृष्टि का केन्द्रीय विन्दु बन गया। तब परिवार की व्यवस्था शायद ज्यादा पुख्ता हुई। क्योंकि इन्हें अच्छे दिनों में हीं बुरे दिनों की तैयारी करने की जरूरत महसूस होती होगी। जैसा कि आज होता है। आज के नौकरशाह अपनी अच्छी पोस्टींग का धन संग्रह के लिए हीं उपयोग करते हैं।
यह हमारी कथाओं के कालक्रम को देखें तो पाते हैं कि हमारा समाज चिन्तन- विचारशीलता में अथवा दैनिक कार्य में क्रमशः अकुशल या फूहड़ होते चले आए हैं। रामायण – महाभारत की पृष्ठ भूमि देखें तो राम के लिए Survival विषय नहीं था। उनके गुरू – वशिष्ठ या विश्वामित्र ने राम की पहचान को विशाल बनाया या योग की शब्दावली में अहंकार को दशरथ के पुत्र से ज्यादा बड़ा – बड़े से बड़ा अहंकार कि पूरा ब्रह्माण्ड हीं व्यक्ति की मनोदशा का हिस्सा बन जाए। तो वह अहिाल्या के लिए खड़ा हो जाएगा और शाप मुक्त करने को प्रस्तुत होगा। इस व्यक्ति के लिए पूरी पृथ्वी हीं परिवार बन जाएगा। ऐसे लोगों के लिए संग्रह की व्यक्तिगत लालसा का अर्थ नहीं बचता। और पृथ्वी पर कोई तो होगा हीं जो राम को आगे ले कर बढ़े। लेकिन महाभारत के नायक अपने “मैं और मेरा”तक सीमित अहंकार के साथ परिवार हीं नहीं पूरी सभ्यता के विध्वंसक बन सके। महाभारत के नायकों की बौद्धिक स्थिति से हम कुछ पायदान और नीचे खिसके हैं ।
आदि शंकराचार्य की अद्वैत दृष्टि ने गीता की व्याख्या (तृतीय अध्याय) करते करते कह दिया :
“सिद्धः तर्हि सर्वाश्रमिणां ज्ञानकर्मणोः समुच्चय। एवं
न मुमुक्षोः सर्वकर्मसंन्यासविधानात्”
अब मोक्ष एक ऊँचे से ऊँचा पुरुषार्थ है – तो आदमी को कर्म त्याज्य है। यह विचारधारा भारत में बौद्धिक शिथिलता एवं उत्पादन कर्ता को हीन सिद्ध करने वाली बनी। इस विचार के कारण भारत गुलाम हुआ और हम आज तक सनातन अथवा हिन्दु जीवन दृष्टि से अनजान अथवा भ्रम की स्थिति में हैं। हम अपनी पहचान के लिए हीं सशंकित हैं । हम पहलीबार Survival के प्रश्न को मुखातिब हैं। इस सामूहिक भावदशा से भारतीय परिवार का सलिल स्वरूप कठोर एवं संयुक्त एवं इसके कितने हीं अन्य रूप उपस्थित हुए। इनमें आज के जातीय समुदायों / संगठनों को भी जगह दी जा सकती है। यह किसी एक कुशल व्यक्ति के हुनर एवं कमाई को संभालने के उपकरण के तौर पर हीं विकसित हो सका है।
लेकिन यह सामान्य दृष्टि बहुत दूर तक समाज के लिए उपयोगी नहीं रहती। क्योंकि एक कुशल बाप यह सुनिश्चित नहीं कर सकता कि खास skill set उसके बच्चे में विकसित हो जाए। पुनः यदि वह गुजर गया है – तो परिवार के अन्य सदस्यों में वही वैचारिक तीव्रता नहीं होती कि आवश्यक हुनर अगली पीढ़ियों में बढ़े एवं फले फूले। अन्यथा क्या कारण है कि महाभारत की कथा के बाद के भारतीय राजवंश प्रायः तीन-चार पीढ़ी तक हीं चल पाए? वह मौर्य हों या कोई और ! परिवार आज एक ऐसा संगठन है जो किसी मुख्य सदस्य की विरासत को न तो समझता है ना हीं उसमें स्वाभाविक- तार्किक क्षमता होती है कि अगला पृष्ठ जोड़ सके । यह एक लम्बे समय से सामूहिक वैचारिक स्तब्द्धता एवं अकर्मण्यता का हीं परिणाम है। उत्कृष्टता Excellence हमारा सामूहिक स्वभाव नहीं है। इसका का प्रमाण किसी भी स्कूल का पाठ्यक्रम अथवा भारत में प्रचलित साहित्य है। आज भारतवर्ष में हिन्दी अथवा अंगे्रजी में कितने लेखक हैं।।
बच्चे स्वाभाविक तौर पर बूढ़ी पीढ़ी की जगह ले लें और व्यक्तिगत एवं सामूहिक तौर पर उत्कृष्ठता की ललक बनी रहे – यह मशीनी अन्दाज की शिक्षा से नहीं संभव है। हमारे सामने पश्चिम का उदाहरण है : पॉंच छः सौ वर्षो में हीं वैचारिक एवं व्यक्ति की स्वतंत्रता से वैचारिक नियंत्रण (Thought Control or regulation by Seat of Power and through Consumerism unlimited profit for a few). Social Contract से कम्पनी को व्यापार एवं मुनाफा के लिए व्यक्तियों के मुकाबले महती अधिकार दिया जाना एवं संचार साधनों पर नियन्त्रण। यह हमारी विश्व दृष्टि हो रही है एवं होने वाली है। यह परिवार के बाद का आधुनिक सुरक्षा कवच का आयोजन घटित हो रहा प्रतीत होता है। यह मानव जाति के विद्या- अविद्या की निरन्तरता के लिए आयोजन नहीं लगता।
आज का परिवार या कॉरपोरेट- घेराबन्दी की आधारभूत मान्यता पदार्थवाद है। यह जीवन के किसी चेतन आधार को नकारता है। यह पूरी की पूरी तैयारी जीवन के प्रवाह को रोकने की ही है। जड़ अद्वैत की विचार धारा शंकर के चैतन्य अद्वैत से – हमें कम नुकसान पहुँचाने वाली नहीं होगी। जीवन- जो नए विचारों एवं प्राविधियों एवं क्षमताओं से – अपने आप को बार बार सिद्ध एवं स्थापित करती है- को रोक सके तब भी मानव जाति का नुकसान होने जा रहा है।
कॉरपोरेट घेराबन्दी का एक सीधा प्रमाण तो व्यक्ति को संसाधन कहने शुरू हो गया है। परिवार कॉरपोरेट के लिए एक खतरनाक व्यवस्था है जो एक व्यक्ति को संसाधन बनन में रुकावट पैदा करता है। काफका की कहानी “मेटामॉर्फोसिस” का खयाल करिए। अब यह “लीव इन संबन्धों, समलैंगिक विवाह” को भी हवा दे रहा है कि परिवार खड़ा न हो और व्यक्ति का सुरक्षा चक्र समाप्त हो जाए।
यदि आप सद्गुरु और रतन टाटा के वार्तालाप का वीडियो यूट्यूब पर देखेंगे तो पाएंगे कि सद्गुरु ने “Pursuit of Excellence” के विषय में पूछा तो श्री टाटा – Technology import/ access & Corporate Excellence – पर बकवास करते रहे। क्या आपको लगता है कि यह आदमी – जो अपने पुरखे जमशेद जी टाटा की भी दृष्टि नहीं रखता – वह समाज और राष्ट्र को छौड़ दें – अपनी कम्पनी को भी नम्बर एक की स्थिति में रख सका है?
हमारी जड़ दृष्टि चीजों को अपने तक सीमित रखने की प्रेरणा देती है। यह कल्याणकारी है या नहीं – यह थोड़ा ध्यान देने से हीं स्पष्ट हो जाता है। परिवार निश्चय ही Pursuit of Excellence तैयारी नहीं करा सकता – लेकिन वह व्यक्ति को खड़ा रहने का संकल्प और अवकाश दोनों ही देता है।
परिवार एक अत्यन्त हीं छोटे अर्थों में – जो एक नए जीव को गुरुकुल जाने लायक बना दे- तक हीं उपयोगी है। अन्य सामूहिक शिष्टाचार, व्यवहार एवं चलन – कलन गुरुओं की जिम्मेदारी होनी चाहिए। यही एक उदार अथवा तो विशाल अहंकार या पहचान के व्यक्ति या द्विज के जन्म की प्राविधि है। उत्तमता के लिए उपासना/प्रयास – जो वैदिक सलाह भी है – ही किसी व्यक्ति , समूह अथवा जाति, Corporate या राष्ट्र के लिए कारगर सुरक्षा कवच हो सकता है।
अन्य सारी आशाएँ मृगमारीचिका से ज्यादा कुछ नहीं।
पं वररुचि जाने माने साहित्यकार, इतिहासकार, कथाकार हैं।