Shashi Shekhar: A wonder of experience and adoption

Shashi Shekhar: शशि शेखर, अनुभव और अडॉप्टेशन की अद्भुत शख्सियत

डिजिटल दिल्ली दिल्ली NCR
Spread the love

अभिषेक मेहरोत्रा, मीडिया कॉमेंटेटर

Shashi Shekhar: बीते कुछ सालों में पत्रकारिता का चाल, चरित्र और चेहरा काफी हद तक बदल गया है. शालीन और सटीक पत्रकारिता अब कोलाहल से भरी हो गई है. अधिकांश टीवी डिबेट देखकर शांत मन भी अशांत हो जाता है. राई का पहाड़ बनाना और फिर उस पहाड़ से दूसरों को नीचे गिरा देना आम है. हालांकि, इन सबके बीच कुछ पत्रकार ऐसे हैं, जिन्होंने पत्रकारिता के मूल्यों, उसके स्वरूप को आज भी बनाए रखा हुआ है. वह बदलाव की होड़ के बीच सुचिता, शालीनता और संस्कारों का दामन थामे रखे हैं. देश के बड़े हिंदी अखबार हिंदुस्तान के प्रधान संपादक शशि शेखर(Shashi Shekhar) उन्हीं में से एक हैं.

ये भी पढ़ें: NDTV: NDTV प्रॉफिट की नई मैनेजिंग एडिटर से मिलिए

हाल ही में जब ‘हल्ला-बोल’ शो में शशि शेखरजी को अपनी बात रखते हुए देखा तो लगा कि इस बार उनके बारे में लिखा जाना चाहिए.  पहले आप अंजना ओम कश्यप के शो का उनका वार्तालाप पढ़िए…शो में जब उनसे बिहार चुनाव में संबंध में पूछा गया कि क्या लोकतंत्र की हत्या हो रही है?

तो उन्होंने बेहद शालीनता के साथ अपना जवाब दिया. उन्होंने कहा, ‘अंजना आप जानती हैं कि मैं अपने साथ प्रवक्ता पर कभी कोई टिप्पणी नहीं करता. लोकतंत्र की हत्या हो रही हो या नहीं हो रही हो, वो कुछ वजहों से लहूलुहान ज़रूर हो रहा है. वह इसलिए भी जब भी कोई चुनाव आता है, तारीखों पर विवाद होता है, कभी बंदोबस्ती पर विवाद होता है, कभी तिथि निर्धारण पर विवाद होता है. और मैं बड़े अदब से कहना चाहूंगा कि यह चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि वह अपनी निष्पक्षता को प्रूव भी करे. यह ज़रूरी नहीं है कि राजनीतिज्ञ या केवल कुछ लोग ही उसको प्रूव करते रहें.

दूसरी बात जो बहुत ज्यादा लहूलुहान करती है कम से कम हम जैसे लोगों की आस्था को, जो लोकतंत्र में यकीन करते हैं और वोट डालने को पवित्र कार्य मानते हैं, कि कुछ तिथियाँ अवॉयड भी की जा सकती हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कोई निर्णय लिया, नहीं लिया, सुप्रीम कोर्ट क्या करेगा, नहीं करेगा मैं उन टेक्निकल इशू में नहीं जाना चाहता. लेकिन उसने एक सवाल पूछा कि आपने यही समय क्यों चुना? इसलिए चुनाव आयोग को चाहिए कि वो हर चुनाव के बाद एक मीटिंग करके तय करे कि आगे यह गड़बड़ियाँ न हों.

एक बात मैं अपने राजनीतिक दोस्तों से भी कहना चाहूंगा कि चुनाव आप लड़ते हैं, आप जीतते हैं – हारते हैं. एक पार्टी ने बहुत साल पहले कहा कि नया वोटिंग सिस्टम बहुत खराब है. तर्क दिया, किताबें भी लिखीं. दूसरी ने कहा नहीं, ठीक है. वो दूसरी पार्टी इधर आ गई और पहली पार्टी उधर चली गई और उसके बाद सब ठीक हो गया. आखिर हम कब तक घिसे-पिटे तर्कों पर बने रहेंगे. मुझे लगता है कि बिहार में जिनकी पिछले 20 सालों से हुकूमत है, वो अपने रिपोर्ट कार्ड के साथ जाएं. जिनकी हुकूमत नहीं है, वो अपने तर्कों के साथ जाएं.

उनके इसी जवाब से समझा जा सकता है कि बतौर पत्रकार वह व्यवस्था पर तंज भी कसते है, लेकिन शालीनता के साथ. यह वो गुण है, जो तेजी से दुर्लभ होता जा रहा है. उन्हें कभी भी आप बेवजह के नैरेटिव में नहीं उलझा सकते. वह बखूबी जानते हैं कि कब, कहां, क्या और कितना बोलना है. माहौल चाहे कैसा भी हो, वह संतुलित रहते हैं और उनमें यह संतुलन समग्रता से आता है, झुकाव से नहीं.

शशिजी को आप भीड़ से अलग पाते हैं, महज इसलिए नहीं कि वह पत्रकारिता के एक ऊंचे मुकाम पर हैं, बल्कि इसलिए कि वह सादगी और शालीनता के साथ साफगोई से अपनी बात रखते हैं. बढ़ती उम्र, पद और अनुभव के साथ-साथ जिस मेच्योरिटी एवं सिंसेयरिटी की उम्मीद की जाती है, वह सबकुछ शशि शेखर में देखने को मिलता है.

Disclaimer: ये लेखक के अपने विचार हैं।