नवीन पाण्डेय, वरिष्ठ पत्रकार
हिन्दुस्तान की सियासत एक क्रांतिकारी मोड़ पर खड़ी है, जहां चीजों को तय करना कई बार बहुत मुश्किल मालूम देता है। प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने गणेश चतुर्थी के शुभ अवसर पर एक नया इतिहास रचने की कोशिश की। यूं कह सकते हैं कि महिला आरक्षण बिल लाकर मोदी ने विपक्षी एकता की हवा ही निकाल दी और 2024 लोकसभा चुनाव से पहले बेहद मजबूत हो गए लगते हैं । लेकिन विपक्ष ने मोदी की मंशा पर सवाल उठाए। कांग्रेस ने कहा कि ये बिल सबसे पहले हम लाए थे, लेकिन उस समय की सियासत ने इसे आगे नहीं बढ़ाने दिया। मोदी जी तो इसे 2029 से लागू करवाना चाहते हैं, ताकि उनका कार्यकाल निकल जाए, उनकी मंशा केवल चुनावी फायदा लेने की तो आइये पड़ताल करते हैं और महिला आरक्षण बिल, जिसे सरकार ने नारी वंदन बिल कहा है, उसके बारे में सारे सवालों के जवाब।
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मोदी सरकार ने पुरानी संसद से नई ईमारत में प्रवेश के साथ ही महिला आरक्षण बिल लोकसभा में पेश करके एक तरह से चुनावी सिक्सर मार दिया है। महंगाई, बेरोजगारी, मणिपुर, जैसे मुद्दों पर अड़ा विपक्ष अब बीजेपी के मुद्दों पर ही बैटिंग करने को मजबूर हो गया है। कांग्रेस भी महिला आरक्षण बिल का क्रेडिट लेने की होड़ में जुट गई है, लेकिन ये भी सच है कि यूपीए सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति की वजह से महिला आरक्षण बिल सालों पहले लटक गया था। तब देश में जाति की राजनीति करने वाले लालू, मुलायम जैसे नेताओं ने महिला आरक्षण पर इतना तीखा विरोध किया था कि सोनिया गांधी के चाहने के बावजूद मनमोहन सिंह की सरकार कामयाबी हासिल नहीं कर पाई थी।
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अगर उस समय सोनिया गांधी जी ने मजबूत इच्छाशक्ति दिखाई होती तो आज इतिहास में मोदी की जगह उनका नाम होता- मनमोहन सिंह जी का नाम होता, निश्चित ही राहुल जी को इसका फायदा मिलता। लेकिन चलिए सियासत ऐसे ही काम करती है। कांग्रेसी ये भी कह सकते हैं कि मोदी जी भी तो साढ़े नौ साल बाद चुनाव से पहले ये काम कर रहे हैं, पहले क्यों नहीं किया। ताकि महिलाओं के वोटों को रिझा सके, आने वाले चुनावों में इसका फायदा उठा सकें तो इसे मानने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए। तो वोटों के लालच में ही सही कम से कम मोदी की मजबूत सरकार ने जब ये काम अपने हाथ में लिया है तो साफ लगता है कि इतिहास रचे जाने से बिल्कुल करीब है।
अब समझ लेते हैं महिला आरक्षण लागू होते ही देश में कैसा नजारा होगा- क्या कुछ बदल जाएगा- तो सबसे पहले लोकसभा में 181 महिला सांसद हो जाएंगी, लेकिन राज्यसभा में कोई असर नहीं पड़ेगा। इसी तरह राज्यों की विधानसभाओं में भी एक तिहाई महिलाएं आ जाएंगी, लेकिन विधान परिषदों में कोई असर नहीं पड़ेगा। अब सोचिए हर राज्य की विधानसभा में जब एक तिहाई महिलाओं को लाना जरूरी होगा तो पूरे देश की राजनीति कैसे बदल जाएगी।
आज भले ही इसकी कल्पना करना थोड़ा मुश्किल हो, लेकिन यकीन मानिए हिन्दुस्तान एक नई तरह के समाज की ओर आगे बढ़ेगा। सोचिए यूपी विधानसभा में कुल 403 में से एक तिहाई यानी एक सौ एक महिलाएं सदन में बैठकर सवाल पूछेंगी। राजस्थान में 66 महिलाएं सदन के भीतर मजबूती से समस्याएं रखती हुई दिखेंगी। कल्पना कीजिए- वे सवाल कैसे होंगे. कितना भी सियासत कर लो- लेकिन महिलाएं जरूरी मुद्दों को उठाने से चूकेंगी नहीं। मसलन गांव में पानी की समस्या, अस्पतालों में महिला डॉक्टर, स्कूलों में महिला शिक्षिका न होने का मुद्दा एकदम से बड़ा बन जाएगा। इन महिलाओं की संख्या ज़्यादा होगी, इसलिए इन मुद्दों पर आवाज भी बुलंद होगी। पुरुष सांसदों का हूजूम हो-ह्ल्ला करके उनको चुप नहीं करा पाएगा। अद्भुत नजारा होगा- हिन्दुस्तान की सियासत में। और यकीन मानिए समय लगेगा लेकिन आज जैसे हालात से तो दो गुना ठीक ही होगा। यानी देश की सत्ता में आधी आबादी को एक तिहाई हिस्सेदारी देना भी एक क्रांतिकारी कदम होगा। प्रधानमंत्री मोदी जरूर इसके लिए बधाई के पात्र हैं।
महिला आरक्षण वैसे हमेशा बीजेपी के एजेंडे में रहा है- और महिलाएं बीजेपी को जमकर वोटिंग भी करती हैं। 2014 में देश में 26 करोड़ महिला वोटर थीं, जो 2019 में बढ़कर 29 करोड़ हो गईं। 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 29 फीसदी महिला वोट मिले, जबकि 2019 में ये बढ़कर 36 फीसदी हो गए। कहते हैं तीन तलाक विधेयक पास कराने में मुसलिम महिलाओं का बड़ी संख्या में वोट बीजेपी को मिला। 2014 में लोकसभा में 62 सांसद पहुंची,जो 2019 में बढ़कर 78 हो गईं- यानी 2014 में महिला सांसदों की तादाद 5.52 फीसदी से बढ़कर 7,55 फीसदी हो गई। जबकि 2014 में कांग्रेस की महिला सांसद पुरुषों की तुलना में 0.74 फीसदी थीं, जो 2019 में 1.10 फीसदी पहुंच गईं।
ये संख्या कम इसलिए लग रही है कि कांग्रेस का प्रदर्शन इन चुनावों में बहुत ही खराब रहा था। इस लिहाज से कह सकते हैं कि महिला आरक्षण बीजेपी को चुनाव में बड़ा फायदा होगा और मोदी सरकार यही चाहती है। जब महिला आरक्षण बिल पास हो जाएगा तो बड़े बड़े नेता कुछ उसी तरह अपने घर की महिलाओं को राजनीति में भेजेंगे, जैसे अभी पंचायतों के चुनाव में होता है। सरपंच चुनी गई महिला के पति सरपंच पति कहलाते हैं और सारा काम करते हैं, क्या उसी तरह विधायक और सांसदों के मामलों में भी होगा। क्या गांव गांव- शहर शहर में महिला नेताओं की बाढ़ सी नहीं आ जाएगी। क्या उसी तरह मोहल्लों के छुटभैये नेता महिला सांसदों के पीछे पीछे घूमेंगे, जैसे अभी नेताओं के घूमते हैं। या महिला कार्यकर्ताओं की संख्या इसलिए बढ़ जाएगी, क्योंकि भविष्य की राजनीति में उनको भी अपने लिए स्कोप दिखने लगेगा। तो युवा लड़कों के साथ युवतियां भी बराबर की संख्या में नारेबाजी करती दिखाई देंगी। वाकई अद्भुत होगा।
कुछ लोग कह सकते हैं कि अभी भी तो महिलाएं चुनी जाती हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि अभी जो महिलाएं चुनी जा रही हैं, उनमें से ज्यादातर मजबूत सियासी परिवारों से आती हैं, सालों उनकी ट्रेनिंग होती है, जैसे समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की धर्मपत्नी डिम्पल यादव को, सोनिया गांधी की बेटी प्रियंका गांधी वाड्रा को, राजनीति इनको रेड कारपेट पर चलते हुए मिली है। लेकिन एक तिहाई सीटें जरूरी होने पर ग्रामीण इलाकों की महिला नेताओं का भी आत्मविश्वास बढ़ेगा- संसाधन न होने के बावजूद उनकी हिम्मत आगे बढ़ने की होगी और इतना ही नहीं पुरुष नेता खुद उनको आगे लेकर आएंगे। आइये- इस महिला सीट से चुनाव लड़िए- आपको हम सपोर्ट करेंगे।
इसी तरह उनके विपक्ष में भी महिलाएं खड़ी की जाएंगी- उन महिलाओं के पीछे भी पुरुष नेताओं का समर्थन होगा।
अब सवाल उठता है कि ये सब कब से होगा- तो जवाब है 2024 के लोकसभा चुनाव में ये नहीं होने जा रहा है, इसलिए अभी वाले सांसदों को अपने टिकट कटने की चिन्ता नहीं है। ये लागू होगा जनगणना पूरी होने के बाद और फिर नए परिसीमन के बाद। यानी कम से कम दो-तीन साल लगेंगे- मोटा मोटा 2026 इसके लिए तय किया गया है। तो राजनीति में रुचि रखने वाली महिलाओं के लिए तैयारी करने के लिए दो साल का समय है। जाहिर तौर पर अब दो भी चुनाव होंगे- उसमें आपको महिलाएं रुचि लेती हुई दिखाई देंगी- खासकर युवा महिलाएं। जैसे अचानक यू-ट्यब, इंस्टाग्राम में महिलाएं वीडियो क्रांति लेकर आई हैं, उसी कड़ी में सामाजिक कार्यों में भी बिन्दास होकर मैदान में उतरेंगी। आप कॉमेन्ट बॉक्स में बता सकते हैं कि इससे क्या क्या फायदें होंगे और क्या कोई नुकसान भी होंगे।
महिला आरक्षण के लिए पेश विधेयक का नाम ‘128वां संविधान संशोधन विधेयक 2023’ है, जिसे मोदी सरकार ने ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक’ नाम दिया है। केन्द्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने जैसे ही ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक’ पेश किया- विपक्ष की ओर से शोर शराबा शुरू हो गया। तो बिल तो पेश हो गया, लेकिन सवाल उठता है कि क्या संसद में बिल पारित होने से सभी राज्यों की विधानसभाओं में भी यह लागू हो जाएगा?
तो जवाब है – हां होगा, लेकिन इसके लिए एक और प्रक्रिया से गुजरना होगा।। चूंकि ये संविधान संशोधन विधेयक है, इसलिए इसे पारित करने के लिए लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होगी। चूंकि विधानसभा सीटों में भी बदलाव होगा, ऐसे में आधे से ज्यादा राज्यों की सहमति भी जरूरी होगी। अगर सभी राज्यों की विधानसभा प्रभावित हो रही है तो उस राज्य की विधानसभा भी सरकार से मांग कर सकती है कि हमारी सहमति भी लीजिए। लेकिन मोदी जी ने जिस तरह से ऐलान किया है, उससे लगता है कि वो ही इसका हल भी निकाल लेंगे।
अब एक सवाल ये उठता है कि क्या महिला आरक्षण हमेशा के लिए है?तो जवाब है नहीं- केवल 15 साल के लिए। लोकसभा और विधानसभाओं में यह कानून जब लागू हो जाएगा, उसके बाद 15 साल तक अमल में रहेगा। उससे आगे रिजर्वेशन जारी रखने के लिए फिर से बिल लाना होगा और मौजूदा प्रक्रियाओं के तहत उसे पास कराना होगा। अगर 15 साल के बाद उस समय की सरकार नया बिल नहीं लाती है, तो ये कानून अपने आप खत्म हो जाएगा। अगर आज के हालात से तुलना करें तो इस बात की संभावना बेहद कम है कि 15 साल बाद ये दोबारा लागू हो जाएगा। इसलिए आज की युवतियों के सामने राजनीति में जगह बनाने के लिए 15 साल तो पक्का हैं। आगे का तब के हालात तय करेंगे।
इसी तरह ये भी पूछा जा रहा है कि क्या एससी-एसटी महिलाओं को अलग से इसमें आरक्षण मिलेगा? तो जवाब है -नहीं। एससी-एसटी महिलाओं के लिए आरक्षण एससी-एसटी कोटे से ही मिलेगा। जैसे – इस समय लोकसभा में एससी-एसटी के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 131 है। महिला आरक्षण लागू होने के बाद इनमें से एक तिहाई यानी 44 सीटें एससी-एसटी महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी। बाकी 87 सीटों पर महिला-पुरुष कोई भी लड़ सकता है। इसी तरह ओबीसी महिलाओं को भी
अलग से आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है और इसी को लेकर सालों से हंगामा होता आ रहा है।
यूपी, बिहार में जातिवाद की राजनीति करने वाली पार्टियों के नेता खुलकर महिला आरक्षण का विरोध नही करते, लेकिन पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण मानते हैं। उनका तर्क है कि जिस तरह शिक्षा में अगड़ी जाति आगे है, उसी तरह उनकी महिलाएं भी आगे हैं और वे इस आरक्षण का फायदा उठा ले जाएंगी- लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखिए तो ये तर्क खोखला है। क्योंकि एक तो हर सीट पर टिकट जातीय समीकरण देखकर ही मिलता है, ये सच्चाई हम सभी जानते हैं। अगर किसी सीट पर पिछड़ी जातियों की संख्या ज़्यादा है तो टिकट देते समय सियासी पार्टियां सारे समीकरण देखती हैं- इसलिए भले ही वो सीट महिला होगी, लेकिन टिकट उसी जाति की महिला को मिलेगा, जैसे अभी पुरुषों को मिलता है।
अब सवाल उठता है कि कौन सी सीट महिला होगी- ये कैसे तय होगा।
तो चुनाव आयोग इसके लिए जनगणना तक इंतजार करेगा। बिल पारित होने और जनगणना के बाद चुनाव आयोग से सीटें चुनेगा। सीटों का चुनाव रैंडम भी हो सकता है या महिलाओं की जनसंख्या के आधार पर भी हो सकता है। चूंकि ज्यादातर सीटों पर महिला-पुरुषों की आबादी तकरीबन बराबरी ही होती है, इसलिए पहली बार आरक्षित सीटें रैंडम चुनने की संभावना ज्यादा लगती है। उसके बाद आरक्षण रोटेशन के आधार पर होगा और हर परिसीमन के बाद सीटें बदली जा सकेंगी। जैसे- अभी लोकसभा में 543 सीटें हैं। महिला आरक्षण बिल लागू होने के बाद इनमें से एक तिहाई यानी 181 सीटें महिलाओं के लिए रिजर्व हो जाएंगी। रोटेशन सिस्टम के बाद हर अगले चुनाव में 181 सीटें बदल जाएंगी।
यानी 181 महिला सांसदों का टिकट कट जाएगा या वे अपनी मौजूदा सीट से चुनाव नहीं लड़ पाएंगी। इसी तरह पिछले चुनाव की अनरिजर्व्ड 362 सीटों में से 181 सांसद चुनाव नहीं लड़ पाएंगे या उनकी सीट बदल जाएगी। इसका मतलब है कि हर चुनाव में 362 सांसदों का या तो टिकट कट जाएगा या उनकी सीटें बदल जाएंगी। इतना ही नहीं एक महिला दो आरक्षित सीटों से चुनाव नहीं लड़ पाएगी। हां, वो बिना रिजर्व सीटों से दो जगह से चुनाव लड़ सकती हैं। तो हिन्दुस्तान की राजनीति में निश्चित ही बदलाव होगा। अब इसका असली असर कितना पॉजिटिव होता है और कितना निगेटिव ये तो समय बताएगा।
((लेखक नवीन पाण्डेय वरिष्ठ पत्रकार हैं और इंडिया टीवी समेत कई संस्थानों में अहम जिम्मेदारी निभा चुके हैं))