‘यायावरी’ डॉ शेफालिका वर्मा द्वारा मैथिली में रचित यात्रा वृतांत है जिसका हिंदी अनुवाद मशहूर हिन्दी–मैथिली लेखिका कल्पना ने किया है। हाल ही में प्रकाशित इनकी पुस्तक “निनियाँ-बाल गीत” बेहद लोकप्रिय रही। अब बात करते हैं ‘यायावरी’ की। एक ऐसा यात्रा संस्मरण है जिसमें पांच बड़े-बड़े शहरों के बारे में बताया गया है, इतना साक्षात साहित्यक विवरण को पढ़ते ही ऐसा लगता है मानों आप उस शहर पहुंच गए हो, आप खुद ही जान लीजिए क्या है यायावरी…
सबसे पहले बात कलकत्ता यानि कोलकाता की। ओह! कितनी रोमांचक है कोलकाता की बातें। साहित्य-अकादमी, दिल्ली द्वारा आयोजित, पूर्वांचलीय कवियों की पांच दिवसीय कार्यशाला, कोलकाता का वर्णन, बस की भीड़, टैक्सी के धूप-छांव, स्वागत-सत्कार। जाने-माने लेखकों का और प्रबुद्ध जनों का इतना सरल मन को छूनेवाला व्यवहार। शुरुआत के संकोच के साथ-साथ आलोचना की फुसफुसाहट फिर धीरे-धीरे खुलना, प्रगाढ़ अपनापन में डूबना और विदा की भावभीनी घड़ियाँ पाठक की आँखों को नम करने में समर्थ हैं। कोलकाता की विशेषतायें, वहाँ की संस्कृति, तौर-तरीके मन को मोह लेने वाली है।
दूसरी यात्रा दिल्ली की पहली बेहद लम्बी यात्रा किन्तु रास्ते की अलग-अलग झलकियाँ दिखाते हुये। कहीं पुत्र से मिलने की आतुर प्रतीक्षा है, कहीं पुत्री की परीक्षा की व्यग्रता। हर रुकने वाले स्टेशन की महत्ता से अवगत कराती हुई शेफालिका जी जब दिल्ली पहुँचती हैं, तो राजधानी की हर ऊँच-नीच दिखाते-बताते पाठकों को पूरी दिल्ली की झलकियाँ दिखा जाती है। पाठक खो जायेंगे दिल्ली की वन-वीथियों में..
तीसरी यात्रा कलिंग एक्सप्रेस से उड़ीसा की यात्रा का वृतान्त।पत्थरों के शहर की तपिश, आग उगलता मौसम किन्तु शीतलता हवा की बयार सी लगी। वहाँ के लोगों में मैथिली आके प्रति उत्कट स्नेह और उत्साह का भाव देख मन रोमांचित हो गया। लोक-कविता पढ़कर एक तरफ हास्य का संचार कर रही थीं। और दूसरी ओर अपनी मैथिली वक्तव्य से श्रोताओं को सम्मोहित। उड़ीसा के लोगों के संस्कार, अलग-अलग क्षेत्रों से आये कवियों- लेखकों का नाम सहित परिचय, उनका आपसी समभाव, उड़ीसा का खान-पान, अतिथि सत्कार और अंत में भावभीनी विदाई।
चौथी यात्रा डिब्रूगढ़ की है जिसमें शेफालिका जी ने अपने बेटी-दामाद से सम्बंधित, रोंगटे खड़ी कर देनेवाले हृदय-विदारक अनुभवों को साझा किया है। राहत तब मिलती है जब दामाद स्वस्थ होने लगते हैं और बेटी के चेहरे की रौनक लौटती है। इसके अलावा अपनी-अपनी आस्था में लिप्त परिवार जनों की व्याकुलता, आपसी सम्बन्धों की गरिमामय महत्ता-मधुरता और प्राकृतिक सौन्दर्य की सुन्दरता का जी भरकर आस्वादन पाठकों को उन्होंने करवाया है।
अंतिम यात्रा जम्मू की है जो साहित्य अकादमी दिल्ली, के ‘यात्रा-अनुदान’ के प्रोजेक्ट पर गयी हैं। डोगरी भाषा की लेखिकाओं को साहित्य में पूर्ण प्रतिष्ठा मिलती है जो देश की अन्य भाषाओँ में शायद ही लेखिकाओं को मिलती है। जम्मू विश्वविद्यालय की जानकारियों का भी अनूठा अंदाज़ है
कहने को तो पांच यात्रायें मात्र हैं, पर इन यात्राओं की अंतर्कथाओं में न जाने कितनी यात्रायें और सन्निहित है। सभी साहित्यिक यात्रायें हैं, लेकिन डिब्रूगढ़ की यात्रा व्यक्तिगत रही है। सभी में व्यष्टि से समष्टि से व्यष्टि और संस्कार-संस्कृति की झलक कई जगह देखने को मिलती है। इसके हिंदी अनुवाद कई जगहों पर मैथिली के शब्दों को भी यथावत् रखा गया है। जिससे वजह से इसकी मौलिकता में भी चार चाँद लग गये हैं।
डॉ शेफालिका की कहानी, उनकी जुबानी
मेरी पहली कविता मैथिली की 1960 में मिथिला मिहिर में प्रकाशित हुई। मै उत्तर बिहार के सहरसा में थी। कहने को तो सहरसा जिला था, लेकिन लोगों की मानसिकता उस समय एक गाँव जैसी ही थी। जब भी निकलती लगता लोगों की आँखें X-ray करती कपड़े को चीरती देह के अंतरतम तक पहुँच जाएगी। पर वर्मा जी के साथ मेरा रिश्ता प्रेम का नही विश्वास का था। जहाँ प्रेम हो विश्वास आ ही जाय कोई जरुरी नही, किन्तु जहाँ विश्वास है वहां प्रेम अपने आप आ जाता है। वे मेरे फ्रेंड फिलोस्फर एवं गाइड भी थे। हम पति-पत्नी कम, प्रेमी-प्रेमिका ज्यादा थे। स्वाति नक्षत्र का एक बूंद यदि सीप में गिरे तो मोती नही तो रेत में गिर विनष्ट हो जाता है। आज जो कुछ मै हूँ अपने पति ललन कुमार वर्मा के बदौलत।दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने कहा यदि सभी पुरुष वर्मा जी की तरह हो जाते तो आज नारी मुक्ति आन्दोलन का कहीं अस्तित्व ही नही रहता, आवश्यकता ही नही होती।
लिखना एक साधना है एक तपस्या है, प्रोफेशन नही। जिस तरह प्रसव वेदना से माता छटपट करती रहती है, और शिशु के जन्म के बाद वो चैन की सांस लेती है। ठीक वही स्थिति रचनाकार की होती है। उसके अंतर में रचना आकार लेने को बेचैन रहती है। जब उसका जन्म कागज के पन्नो पर हो जाता है तो अपने मानस शिशु को देख वो निष्कृति की सांस लेता है। मेरे अन्दर एक नन्ही सी शेफाली है,जिसका अपना जीवन है, अपनी दुनिया है।नितांत अपना…वो अपनी उस दुनिया में अपने मन के अनुसार उछलती है,गाती है …
ओवर सेंटीमेंटल होने के कारन मै सदा भावनाओं में ही बहती रही, भावनाओं कल्पनाओं की दुनिया में रहने के कारन कभी कभी मै अपने रिश्ते नातों में अबूझ पहेली सी रह जाती, लगता मै इस दुनिया के लिए बनी ही नही हूँ। और तब अपार कष्ट होता है मुझे अपने होने का। लेकिन बच्चे मुझे समझते रहे, मेरे ह्रदय को जानते रहे। एक सह्संवेद्य परिवार मुझे मिला मेरे सरे भाई बहने भी ..तभी तो मै जी सकी।
2001 में वर्मा जी के अचानक चले जाने के बाद अचानक मै गहरे शून्य में चली गयी। पटना-दिल्ली भटकती रही किन्तु हर जगह उनकी उपस्थिति की छाप थी और मै बेचैन हो जाती। अंत में मै भावना प्रकाश के पास कराइकल चली गयी जहाँ ये गए ही नही थे। वहां मुझे एकांत मिला, अपनी स्थिति पर सोचने का मौका मुझे मिला। और तभी मैंने वहां नागफांस उपन्यास को ख़त्म किया।
2004 में ही वंदना कौशलेन्द्र ने मुझे इंग्लैंड बुला लिया। मै तैयार हुई क्यों कि वर्मा जी लंकाशायर गए थे मेरे साथ। मुझे डायरी लिखने की आदत थी। 59 से लेकर 2000 तक की डायरी के सारे पन्नो को फाड़ कर मै अपने साथ इंग्लैंड ले गयी। वहां के एकांत ने मुझे प्रेरित किया अपनी जीवनी लिखने को। किस तरह मै आज इस मुकाम पर पहुंची हूँ। मै चाहती थी आज की लड़कियां, आज की नारियां आज के पुरुष देखें ,जाने आत्म शक्ति के बल पर कोई कितना ऊँचा उठ सकता है। और मैं डायरी के पन्नो के सहारे अपनी स्मृतियों को कागज़ के सीने पर उतारती रही। हिंदी में शुरू किया लिखना। वहां से रूस चली गयी सुपर्णा मनोज के पास, वहां भी लिखती रही। मेरे जीवन का आधार ही लिखना बन गया बच्चे भी खुश थे माँ व्यस्त तो हैं। 200 पन्ना लिखने के बाद मै इंडिया आ गयी राजीव जया के पास। वहां किसी समारोह के लिए रामानंद रमण जी का फोन आया, मैंने उनसे कहा मै अपनी आत्मकथा हिंदी में लिख रही हूँ।। सुनते ही उन्होंने कहा हिंदी में क्यों ..आप पर मैथिली का कर्ज है। आप मैथिली में लिखिए। राजीव ने भी कहा आपको मैथिली में ही लिखना चाहिए, मैथिली को आप से बहुत आशा है। और मैंने उल्था करना शुरू किया उन 200 पन्नो का। मायूसी हुई क्यों कि मैथिली के उतने पाठक नही थे, जो मेरा उद्देश्य था। और रोहिणी में मैंने पुनः शुरू किया लिखना । फिर वो मेरी हॉबी बन गयी।
अपने आपको भूलाने का साधन यूँ साधारण शब्दों में टाइम पास। मै पटना में भी लिखती रही। फिर दिल्ली आना पड़ा तरुणा विकास के पास, वहां भी मेरा हमदम मेरा दोस्त मेरे साथ रहा। जिंदगी यादों के भँवर में डूबती उतरती रही। मेरे लिखने के समर्पण को देख विकास जी ने अपने हाथों से चित्रात्मक शब्दों में पुस्तक का नाम लिखा ‘क़िस्त क़िस्त जीवन’, जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है। पुनः पटना गयी। अपनी जगह ,अपने घर में। इसी बीच पंचानन मिश्र से बातें हुई। उन्हें पता चला मै आत्मकथा लिख रही हूँ। वो उसकी पूर्णता और प्रकाशन के लिए जिद्द करने लगे। मै घबरा गयी। रात दिन लिखती रही शबनम संजीव ने हर तरह से मेरी मदद की। मै तो लिख रही थी कि मेरे मरने के बाद मेरे बच्चे इसे जरुर प्रकाशित कराएँगे–मेरी मम्मी का क्या जीवन था ?? किन्तु, पंचानन जी की जिद्द से अचानक मै घबरा गयी। उन्होंने शेखर प्रकाशन के शरदिंदु चौधरी को मेरे घर भेज दिया। तब तक मै 700 पन्ने लिख चुकी थी वो एक जूनून था। इसका विमोचन शरदेन्दु ने वृहत्त रूप से किया, विद्यापति भवन ठसाठ्स भरा, मैथिली के सारे विद्वान भरे। जस्टिस मृदुला मिश्र ने इसका विमोचन किया। मैं रोमांचित हो गई। मेरे जीवन का ऐतिहासिक दिन वो समारोह बन गया। कौन जानता था क़िस्त क़िस्त जीवन पर साहित्य अकादेमी अवार्ड मुझे मिल जायेगा। मैंने अपनी जीवनी लिखी थी नव युग को प्रेरणा मिले, आज की नारियों को युवाओं को मै अपने जीवन से कुछ भी प्रेरित कर सकूँ की धारा के विपरीत किस तरह इस मुकाम पर पहुँच सकी। किन्तु आज विद्वानों ने मेरी इस कृति का सम्मान किया मै कैसे आभार प्रकट करूँ !
मै आज भी यहाँ यही कहना चाहूंगी, हमे अपनी संस्कृति को बचाना है। ये हमारी संस्कृति सीता है। वो अपनी अवमानना नहीं सह सकती। कहीं ऐसा न हो कि हमारी उपेक्षा के कारन एक दिन हमारी संस्कृति भी सीता की तरह पाताल में चली जाय, और हम यूँही देखते रह जाये।।
अंत में मै पुनः अपना हार्दिक आभार प्रकट करती हूँ साहित्य अकादेमी के लिए जिन्होंने मुझे इतना स्वर्णिम अवसर प्रदान किया कि देश के सारे विद्वानों के समक्ष अपने ह्रदय के विचारों को प्रकट कर सकूँ। सभी सुधिजनों को मैं ह्रदय से धन्यवाद करती हूँ।
मैथिली के विद्वानो को नमन, जिनका आशीर्वाद मुझे मिला ।
डॉक्टर शेफालिका का जीवन परिचय
1943 में बिहार के भागलपुर में जन्मीं डॉक्टर शेफालिका वर्मा “महादेवी ऑफ मैथिली” के नाम से जानी जाती हैं। 1974 में उन्हें मैथिली अकादमी, इलाहाबाद की तरफ से गोल्ड मेडल दिया गया। ये पुरस्कार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ बाबू राम सक्सेना के हाथों प्राप्त हुआ। उन्हें प्रथम विश्व महिला पुरस्कार का सम्मान भी मिल चुका है।
इसके अलावा डॉक्टर शेफालिका को “महाकवि यात्री सम्मान”, ‘मिथिला विभूति,’ ‘शताब्दी सम्मान’, डॉ. मुरलीधर श्रीवास्तव शेखर सम्मान” से भी नवाजा जा चुका है।
बायोग्राफिकल इंस्टीट्यूट, नॉर्थ कैलिफोर्निया द्वारा उनके नाम की सिफारिश “वीमेन ऑफ द ईयर, 2004” के लिए भी की गई थी। उनकी कविता “माई विलेज” शिकागो विश्वविद्यालय के जाइड और बोर्ड परीक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल है। डॉक्टर शेफाली ने मुख्य रूप से मैथिली, हिंदी और अंग्रेजी में विभिन्न भाषाओं में लगभग दो दर्जन पुस्तकें लिखी हैं।
माइल्स टू गो…
खबरी मीडिया की तरफ से डॉक्टर शेफालिका को ढेर सारी शुभकामनाएं।
Read: Dr Shefalika Verma, Yayawari, Writer, Maithili, Litterateur, Bhagalpur, Mahadevi of Miathili